पटना 19 मार्च। बिहार का स्वास्थ्य ढांचा गंभीर संकट में है, और हाल ही में जारी कैग (CAG) रिपोर्ट ने इसकी भयावह स्थिति को उजागर कर दिया है। रिपोर्ट के अनुसार, राज्य के स्वास्थ्य विभाग में 49% पद खाली पड़े हैं, जिससे स्वास्थ्य सेवाओं पर गंभीर असर पड़ रहा है। डॉक्टरों की भारी कमी, जरूरी दवाओं की अनुपलब्धता, जर्जर अस्पताल, आवश्यक सुविधाओं का अभाव और बजट का सही इस्तेमाल न होना – ये सभी कारक बिहार की स्वास्थ्य सेवाओं की दयनीय स्थिति को दर्शाते हैं।
CAG की रिपोर्ट के मुताबिक, बिहार में केवल 58,144 एलोपैथिक डॉक्टर कार्यरत हैं, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के मानकों के अनुसार, राज्य में 1,24,919 डॉक्टरों की आवश्यकता है। इसका मतलब यह है कि राज्य में आधे से ज्यादा डॉक्टरों की कमी बनी हुई है। इतना ही नहीं, 13,340 स्वास्थ्य विभाग के पदों पर भर्ती लंबित रही, जिससे चिकित्सा सुविधाओं में और गिरावट आई। अस्पतालों में जरूरी उपकरणों का घोर अभाव है, जिससे मरीजों को पर्याप्त इलाज नहीं मिल पा रहा है। बिहार सरकार की उदासीनता का ही नतीजा है कि बाह्यरोगी विभाग (OPD) में बुनियादी चिकित्सा सुविधाएं तक उपलब्ध नहीं हैं। कैग की जांच में पाया गया कि जिन अनुमंडलीय अस्पतालों का सर्वे किया गया, उनमें से 100% अस्पतालों में आपातकालीन ऑपरेशन थियेटर नहीं थे। इसके अलावा, 19% से 100% तक अस्पतालों में नैदानिक सेवाएँ पूरी तरह अनुपस्थित पाई गईं, और 100% अस्पतालों में लैब तकनीशियनों की कमी थी। इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि राज्य में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति गंभीर बनी हुई है।
बिहार का स्वास्थ्य ढांचा उदासीनता की हालत में है। कैग की रिपोर्ट के मुताबिक:
1. स्वास्थ्य विभाग की प्रमुख इकाइयों में 49% पद खाली थे। बिहार में केवल 58,144 एलोपैथिक डॉक्टर थे, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मापदंडों के तहत 1,24,919 एलोपैथिक डॉक्टरों की जरूरत थी। स्वास्थ्य सेवाओं… https://t.co/1AqcCxFyEo
— Pawan Khera 🇮🇳 (@Pawankhera) March 18, 2025
इसके अलावा, राज्य सरकार द्वारा दवाइयों की खरीद में भारी लापरवाही बरती गई। कैग की रिपोर्ट के अनुसार, आवश्यक दवाइयों का केवल 14% से 63% तक ही स्टॉक उपलब्ध था, जिससे मरीजों को सही समय पर दवाइयाँ नहीं मिल पा रही थीं। मेडिकल कॉलेजों को भी 45% से 68% तक दवाओं की कमी का सामना करना पड़ा। अस्पतालों में 25% से 100% तक जरूरी चिकित्सा उपकरणों की कमी थी, और जिन वेंटिलेटर्स की आपूर्ति की गई थी, उनमें से केवल 54% ही काम कर रहे थे। यह स्थिति कोविड-19 जैसी किसी भी महामारी के दौरान स्वास्थ्य सेवाओं की तैयारियों पर बड़ा सवाल खड़ा करती है। स्वास्थ्य विभाग की इस लापरवाही की वजह से आम जनता को इलाज के लिए निजी अस्पतालों का सहारा लेना पड़ रहा है, जहां महंगे इलाज की वजह से गरीब मरीजों को कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
बिहार के अस्पतालों में बुनियादी सुविधाओं की भारी कमी
बिहार में स्वास्थ्य ढांचे की सबसे गंभीर समस्या अनुमंडलीय अस्पतालों और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों (CHC) की कमी है। रिपोर्ट के अनुसार, 47 अनुमंडलों में अनुमंडलीय अस्पताल ही मौजूद नहीं हैं, जिससे लाखों लोगों को इलाज के लिए बड़े शहरों की ओर भागना पड़ता है। इसी तरह, 399 स्वीकृत सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में से केवल 191 ही बनाए गए हैं, जिसका अर्थ है कि आधे से अधिक स्वास्थ्य केंद्र केवल कागजों पर ही हैं। ग्रामीण इलाकों में चिकित्सा सुविधाएं पहले से ही बदहाल थीं, और इस रिपोर्ट ने इसे और प्रमाणित कर दिया है।
इसके अलावा, 44% प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (PHC) 24×7 संचालित नहीं हो रहे, यानी आधे से ज्यादा अस्पताल ऐसे हैं जो जरूरतमंद मरीजों के लिए हर समय उपलब्ध नहीं हैं। कई प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में डॉक्टर, नर्स और आवश्यक उपकरणों का भारी अभाव है। बिहार सरकार स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के लिए जो भी दावे कर रही है, कैग की रिपोर्ट ने उन्हें झूठा साबित कर दिया है। सरकार की विफलता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि अस्पतालों में बिस्तरों की भारी कमी के कारण मरीजों को फर्श पर इलाज करवाने को मजबूर होना पड़ता है। इसके अलावा, गर्भवती महिलाओं के लिए प्रसव केंद्रों की कमी और नवजात बच्चों के लिए ICU की अनुपलब्धता भी बिहार के स्वास्थ्य तंत्र की बदहाली को दर्शाती है।
बिहार सरकार का बजट आवंटन और स्वास्थ्य सेवाओं में असंतुलन
कैग रिपोर्ट के मुताबिक, बिहार सरकार ने स्वास्थ्य विभाग के लिए ₹69,790.83 करोड़ का बजट आवंटित किया था, लेकिन उसमें से केवल 69% ही खर्च किया गया। इसका मतलब है कि ₹21,743.04 करोड़ की राशि बिना इस्तेमाल किए पड़ी रही। इस राशि का सही उपयोग नहीं होने की वजह से बिहार की स्वास्थ्य सेवाओं में अपेक्षित सुधार नहीं हो सका। रिपोर्ट के अनुसार, बिहार सरकार ने राज्य के सकल घरेलू उत्पाद (GSDP) का केवल 1.33% से 1.73% तक ही स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च किया, जबकि आवश्यक न्यूनतम स्तर 2.5% होना चाहिए था। अगर बिहार सरकार अपने आवंटित बजट का सही इस्तेमाल करती, तो अस्पतालों की स्थिति में सुधार हो सकता था और मरीजों को बेहतर इलाज मिल सकता था।
राजनीतिक दृष्टि से देखा जाए तो यह रिपोर्ट चुनावी माहौल में बड़ा मुद्दा बन सकती है। भाजपा और जदयू की सरकार पिछले कई वर्षों से बिहार में शासन कर रही है, लेकिन स्वास्थ्य सेवाओं में कोई बड़ा सुधार नहीं हुआ है। विपक्ष लगातार सरकार पर स्वास्थ्य व्यवस्था की अनदेखी करने का आरोप लगाता रहा है। इस रिपोर्ट के बाद यह आरोप और भी मजबूत हो गया है। अब सवाल यह उठता है कि बिहार सरकार इस रिपोर्ट के निष्कर्षों को कैसे स्वीकार करती है और भविष्य में स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के लिए क्या ठोस कदम उठाती है।
राज्य में स्वास्थ्य सेवाओं की इस बदतर स्थिति के कारण गरीब और मध्यम वर्ग के लोग सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं। सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा के कारण मरीजों को निजी अस्पतालों में महंगे इलाज के लिए मजबूर होना पड़ता है। हालांकि, राज्य सरकार विकास के बड़े-बड़े दावे करती है, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही बयां कर रही है। बिहार जैसे बड़े राज्य में अगर स्वास्थ्य सेवाएं इस तरह से चरमराई हुई हैं, तो इसका सीधा असर प्रदेश के आर्थिक विकास और मानव संसाधन पर पड़ेगा।
क्या बिहार की स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार संभव है?
बिहार की स्वास्थ्य सेवाओं को सुधारने के लिए सरकार को ठोस नीतियों और योजनाओं की जरूरत है। सबसे पहले, स्वास्थ्य विभाग में खाली पड़े 49% पदों को तत्काल भरा जाना चाहिए। डॉक्टरों, नर्सों और लैब तकनीशियनों की भर्ती में तेजी लाने की जरूरत है ताकि अस्पतालों में मरीजों को समय पर उचित इलाज मिल सके। साथ ही, सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि बजट का पूरा उपयोग हो और स्वास्थ्य सेवाओं में निवेश बढ़ाया जाए। इसके अलावा, राज्य के सभी अनुमंडलों में अनुमंडलीय अस्पतालों की स्थापना की जानी चाहिए और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों का निर्माण पूरा किया जाना चाहिए।
अगर बिहार सरकार स्वास्थ्य क्षेत्र में गंभीर सुधार नहीं करती, तो इसका असर आने वाले चुनावों में देखने को मिल सकता है। जनता अब विकास के खोखले दावों पर विश्वास करने के बजाय जमीनी हकीकत पर ध्यान दे रही है। कैग की रिपोर्ट ने यह साबित कर दिया है कि बिहार की स्वास्थ्य सेवाएं सिर्फ नाममात्र की हैं और जमीनी स्तर पर लोग स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए तरस रहे हैं।
अब देखना यह है कि सरकार इस गंभीर रिपोर्ट को कितनी गंभीरता से लेती है और आने वाले समय में स्वास्थ्य क्षेत्र में क्या सुधार करती है। अगर राज्य सरकार ने समय रहते ठोस कदम नहीं उठाए, तो यह मुद्दा आगामी चुनावों में बड़ा राजनीतिक हथियार बन सकता है।
