
नई दिल्ली, 22 जून। 13 जून, 2025 को विश्व को एक बार फिर एकतरफा सैन्य कार्रवाई के खतरनाक परिणाम देखने को मिले, जब इज़रायल ने ईरान और उसकी संप्रभुता के खिलाफ एक बेहद चिंताजनक और अंतरराष्ट्रीय नियमों के विरुद्ध हमला शुरू किया।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ईरान की धरती पर इस बमबारी और सुनियोजित तरीके से की जा रही लक्षित हत्याओं की निंदा करती है। इससे युद्ध और भय के बढ़ने की संभावनाएं अत्यधिक बढ़ गई हैं, जिसके गंभीर क्षेत्रीय और वैश्विक परिणाम हो सकते हैं।
हाल ही में इज़रायल द्वारा गाज़ा में की गई क्रूरतापूर्ण और अमानवीय कार्रवाइयों की तरह ही ईरान के खिलाफ यह सैन्य कार्यवाही भी आम नागरिकों के जीवन और क्षेत्रीय स्थिरता को ताक पर रखकर की जा रही है। इस प्रकार की कार्रवाइयों से केवल अस्थिरता बढ़ेगी और निरंतर टकराव एवं संघर्ष बने रहेंगे।
इससे भी अधिक चिंताजनक यह है कि यह हमला उस समय किया गया है जब ईरान और अमेरिका के बीच चल रहे कूटनीतिक प्रयास सकारात्मक संकेत दे रहे थे। इस साल पाँच दौर की बातचीत हो चुकी है तथा छठा दौर जून में होने वाला था।
यह भी उल्लेखनीय है कि हाल ही में, मार्च 2025 में अमेरिका की डायरेक्टर ऑफ नेशनल इंटेलिजेंस, तुलसी गब्बार्ड ने अमेरिकी कांग्रेस के समक्ष स्पष्ट गवाही दी थी कि ईरान में परमाणु हथियार कार्यक्रम को आगे नहीं बढ़ाया जा रहा है, और वहाँ के सुप्रीम लीडर अली खामेनेई ने 2003 में इस कार्यक्रम को रोकने के बाद आज तक उसे दोबारा शुरू करने की अनुमति नहीं दी है।
इज़रायल में नेतन्याहू सरकार का रवैया
ध्यान देने वाली बात यह है कि इज़रायल में प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू का मौजूदा नेतृत्व लंबे समय से शांति भंग करने और उग्रवाद को बढ़ावा देने का कार्य करता आया है। उनकी सरकार लगातार अवैध विस्तार, कट्टर राष्ट्रवादियों के साथ गठबंधन तथा दो-राज्य समाधान के विरोध के लिए जानी जाती है। इस नीति ने न केवल फिलिस्तीनी नागरिकों की पीड़ा को बढ़ाया है, बल्कि पूरे क्षेत्र को स्थायी संघर्ष की दिशा में धकेल दिया है।
इतिहास को देखा जाए तो स्पष्ट होता है कि श्री नेतन्याहू ने किस प्रकार 1995 में नफरत की राजनीति को हवा दी, जिसके कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री यित्ज़ाक राबिन की हत्या हुई और इज़रायल-फिलिस्तीन के बीच चल रही शांति प्रक्रिया का अंत हो गया। वह प्रयास उस समय सबसे आशाजनक शांति प्रयासों में से एक था।
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि नेतन्याहू ने संवाद के बजाय टकराव का रास्ता क्यों चुना। इससे भी अधिक दुखद यह है कि अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप, जो कभी अमेरिका के अंतहीन युद्धों और सैन्य-औद्योगिक गठजोड़ के खिलाफ मुखर थे, अब उसी विनाशकारी नीति का समर्थन कर रहे हैं।
वो स्वयं बार-बार कहते आए हैं कि इराक के खिलाफ युद्ध एक झूठ पर आधारित था—वह झूठ कि इराक के पास जनसंहारक हथियार हैं। इसी झूठ के कारण एक महंगा और विनाशकारी युद्ध लड़ा गया जिसने इराक को बर्बाद कर दिया और पूरे क्षेत्र को अस्थिर कर दिया।
इसलिए 17 जून को श्री ट्रंप द्वारा दिया गया यह बयान अत्यंत निराशाजनक है, जिसमें उन्होंने अपनी ही खुफिया प्रमुख के बयान को खारिज कर यह दावा किया कि ईरान परमाणु हथियार हासिल करने के “बहुत करीब” था।
आज दुनिया को ऐसे नेतृत्व की आवश्यकता है जो तथ्यों पर आधारित हो, कूटनीति से प्रेरित हो—not ताकत और झूठ से।
दोहरे मापदंडों की कोई जगह नहीं
पश्चिम एशिया के भयावह इतिहास को देखते हुए, यह स्वीकार किया जा सकता है कि इज़रायल की सुरक्षा चिंताएं वास्तविक हो सकती हैं। लेकिन इसमें दोहरे मानदंडों के लिए कोई स्थान नहीं है। इज़रायल स्वयं एक परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र है, जिसका अपने पड़ोसियों के विरुद्ध सैन्य हमलों का लम्बा इतिहास है।
इसके विपरीत, ईरान ने परमाणु अप्रसार संधि (NPT) पर हस्ताक्षर कर रखे हैं और 2015 के Joint Comprehensive Plan of Action (JCPOA) के अंतर्गत यूरेनियम संवर्धन पर सख्त सीमाएं स्वीकार की थीं, ताकि उस पर से आर्थिक प्रतिबंध हटाए जा सकें। इस समझौते को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पाँच स्थायी सदस्यों, जर्मनी और यूरोपीय संघ ने समर्थन दिया था, और अंतरराष्ट्रीय निरीक्षकों ने इसकी पुष्टि भी की थी।
फिर भी 2018 में अमेरिका ने एकतरफा निर्णय लेकर इस समझौते से बाहर होकर वर्षों की मेहनत से बनी कूटनीतिक संरचना को ध्वस्त कर दिया, जिससे इस क्षेत्र में फिर से अस्थिरता पैदा हो गई।
भारत पर इसका प्रभाव
इस फैसले का गहरा असर भारत पर भी पड़ा। ईरान पर दोबारा प्रतिबंध लगने के बाद भारत की कई प्रमुख रणनीतिक और आर्थिक परियोजनाओं पर संकट आ गया, जिनमें इंटरनेशनल नॉर्थ-साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर और चाबहार बंदरगाह परियोजना शामिल हैं। ये परियोजनाएं भारत को मध्य एशिया और अफगानिस्तान से जोड़ने हेतु अत्यंत आवश्यक थीं।
ईरान भारत का एक पुराना और विश्वसनीय मित्र रहा है। दोनों देशों के बीच गहरे सांस्कृतिक और ऐतिहासिक संबंध हैं। ईरान ने जम्मू-कश्मीर जैसे मुद्दों पर हमेशा भारत का साथ दिया है। 1994 में ईरान ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में भारत के खिलाफ प्रस्ताव को रोकने में मदद की थी। 1965 और 1971 के युद्धों के समय, पाकिस्तान समर्थक अपने पूर्ववर्ती शासन की तुलना में इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ ईरान भारत के अधिक निकट रहा।
भारत की भूमिका और जिम्मेदारी
पिछले कुछ दशकों में भारत और इज़रायल के बीच रणनीतिक संबंध भी मजबूत हुए हैं, लेकिन यह भारत के लिए संतुलन और शांति की भूमिका को कम नहीं करता। पश्चिम एशिया में लाखों भारतीय रहते हैं और काम करते हैं, ऐसे में इस क्षेत्र में शांति बहाल करना भारत का एक महत्वपूर्ण राष्ट्रीय हित है।
ईरान के खिलाफ इज़रायल के वर्तमान हमले उस समय हुए हैं जब शक्तिशाली पश्चिमी देशों ने इज़रायल की अमानवीय कार्रवाइयों को नज़रअंदाज़ किया और कुछ हद तक समर्थन भी प्रदान किया है।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, 7 अक्टूबर 2023 को हमास द्वारा किए गए भयानक और अस्वीकार्य हमलों की स्पष्ट निंदा करती है। लेकिन इसके बाद इज़रायल द्वारा की गई बर्बर प्रतिक्रिया की भी हम निंदा करते हैं। इन हमलों में फिलिस्तीन के 55,000 से अधिक नागरिक मारे जा चुके हैं। पूरे परिवार खत्म हो गए, मोहल्ले उजड़ गए और अस्पताल भी तबाह कर दिए गए। गाज़ा इस समय अकाल की कगार पर है और वहाँ के नागरिक जिस पीड़ा से गुजर रहे हैं, उसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता।
भारत सरकार की निष्क्रियता चिंताजनक
इस मानवीय संकट के सामने, नरेंद्र मोदी सरकार ने भारत की दीर्घकालिक नीति—एक शांतिपूर्ण दो-राज्य समाधान की नीति—को त्याग दिया है। यह नीति एक स्वतंत्र, संप्रभु फिलिस्तीन के निर्माण का समर्थन करती थी, जो इज़रायल के साथ सम्मानपूर्वक सहअस्तित्व में रह सके।
लेकिन अभी भी देर नहीं हुई है। भारत को चाहिए कि वह स्पष्ट रूप से अपनी आवाज बुलंद करे, जिम्मेदारी से कार्य करे और तनाव कम करने तथा पश्चिम एशिया में कूटनीतिक वार्ताएं पुनः शुरू करवाने हेतु सक्रिय प्रयास करे।