
नई दिल्ली, 14 अप्रैल। देश की अर्थव्यवस्था एक ओर वैश्विक चुनौतियों से जूझ रही है, तो दूसरी ओर घरेलू नीतियों को लेकर विपक्ष सरकार पर लगातार हमलावर है। कांग्रेस नेता और वरिष्ठ सांसद श्री जयराम रमेश ने एक बार फिर मोदी सरकार पर आर्थिक शोषण का गंभीर आरोप लगाते हुए दावा किया है कि केंद्र की नीतियों ने आम जनता की जेब काटी है और निजी तेल कंपनियों को अप्रत्याशित मुनाफा पहुंचाया है। उन्होंने पेट्रोलियम सेक्टर की नीतियों की निष्पक्ष ऑडिट और जांच की मांग करते हुए इसे ‘खुली लूट’ की संज्ञा दी है।
श्री रमेश ने तथ्यों के आधार पर केंद्र सरकार की पिछले ग्यारह वर्षों की तेल नीति पर सवाल उठाए हैं। उनके अनुसार मई 2014 में पेट्रोल पर एक्साइज ड्यूटी ₹9.20 प्रति लीटर और डीज़ल पर ₹3.46 प्रति लीटर थी, जिसे वर्तमान सरकार ने बढ़ाकर क्रमशः ₹19.90 और ₹15.80 कर दिया। यह बढ़ोतरी पेट्रोल पर 57% और डीज़ल पर 54% है, जो आम नागरिकों पर प्रत्यक्ष आर्थिक बोझ डालती है। इसके बावजूद केंद्र सरकार लगातार यह दावा करती रही है कि वह महंगाई नियंत्रण में है।
भारत की जनता लूटी जा रही है — मोदी सरकार द्वारा एक तरफ़ टैक्स का बोझ बढ़ाकर जहां जनता की जेब काट रही है, वहीं दूसरी तरफ़ प्राइवेट व सरकारी तेल कंपनियां मुनाफ़ा कमा रही हैं!
यह खुला आर्थिक शोषण है!
सच्चाई यह है :
1. मई 2014 में पेट्रोल पर एक्साइज ड्यूटी ₹9.20 और डीज़ल पर… pic.twitter.com/1JAYmNVUa7
— Jairam Ramesh (@Jairam_Ramesh) April 13, 2025
आंकड़े यह भी बताते हैं कि सरकार ने पेट्रोलियम सेक्टर से पिछले ग्यारह वर्षों में ₹39.54 लाख करोड़ का राजस्व अर्जित किया है। यह एक विशाल राशि है, जिससे उम्मीद की जाती थी कि जनता को टैक्स में राहत, सब्सिडी या किसी प्रकार की प्रत्यक्ष सहायता मिलेगी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। इसके बजाय, सरकार ने इस राजस्व का उपयोग बजटीय घाटे को संतुलित करने और कुछ चुनिंदा परियोजनाओं में निवेश करने में किया, जिससे आम आदमी को कोई सीधा लाभ नहीं मिला।
जयराम रमेश ने यह भी उजागर किया कि जब यूपीए सरकार सत्ता में थी, उस वक्त अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत लगभग $108 प्रति बैरल थी, और तब भी पेट्रोल दिल्ली में ₹71.41 और डीज़ल ₹55.49 प्रति लीटर में बिक रहा था। इसके उलट, आज जबकि कच्चे तेल की कीमत $65.31 प्रति बैरल है — यानी लगभग 40% की कमी — पेट्रोल ₹94.77 और डीज़ल ₹87.67 प्रति लीटर पर बिक रहा है। इससे स्पष्ट होता है कि कीमतों में गिरावट का लाभ जनता तक नहीं पहुंचाया गया।
सरकार द्वारा एक्साइज ड्यूटी बढ़ाए जाने से सिर्फ राजस्व ही नहीं बढ़ा, बल्कि यह नीति निजी और सार्वजनिक तेल कंपनियों के लिए भी फायदेमंद साबित हुई। रिफाइनिंग, मार्केटिंग और डिस्ट्रीब्यूशन के विभिन्न चरणों में इन कंपनियों ने भारी मुनाफा कमाया है। सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों की बैलेंस शीट तो मजबूत हुई ही है, निजी कंपनियों ने भी इस दौरान अपना बाजार और मुनाफा दोनों बढ़ाया। सवाल उठता है कि क्या यह लाभ सिर्फ बाज़ार की परिस्थितियों के कारण था या फिर सरकार की नीतियों ने इन्हें लाभ पहुंचाने का विशेष अवसर दिया?
इस गंभीर मुद्दे पर श्री रमेश ने मांग की है कि भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (CAG) को पेट्रोलियम क्षेत्र में पिछले एक दशक के वित्तीय प्रबंधन की व्यापक ऑडिट करनी चाहिए। उनका कहना है कि इस ऑडिट से यह स्पष्ट हो सकेगा कि सरकार की नीतियां जनता के हित में थीं या कुछ गिने-चुने औद्योगिक घरानों को फायदा पहुंचाने के लिए बनाई गई थीं। यह पारदर्शिता और जवाबदेही के सिद्धांतों के अनुरूप होगा।
सिर्फ ऑडिट ही नहीं, बल्कि उन्होंने केंद्रीय सतर्कता आयोग (CVC) और केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) से इस पूरी प्रक्रिया की जांच की भी मांग की है। उन्होंने सवाल उठाया कि कहीं यह जानबूझकर की गई लापरवाही तो नहीं थी या फिर सरकार और तेल कंपनियों के बीच कोई अंदरूनी मिलीभगत थी। यदि ऐसा पाया जाता है तो यह न केवल नीति विफलता है, बल्कि यह जनहित के विरुद्ध आपराधिक लापरवाही भी होगी।
यह मुद्दा केवल आर्थिक नहीं, बल्कि राजनीतिक और सामाजिक भी है। जहां एक ओर सरकार अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों और वैश्विक बाजार को दोष देती है, वहीं विपक्ष लगातार यह कहता आ रहा है कि जब वैश्विक स्तर पर तेल सस्ता हो रहा है, तब भारत में कीमतें क्यों बढ़ रही हैं। इससे मध्यम वर्ग, गरीब और छोटे व्यवसायी वर्ग को सर्वाधिक नुकसान हो रहा है। कृषि, परिवहन और अन्य सेवाएं भी महंगे ईंधन की मार झेल रही हैं, जिससे महंगाई की श्रृंखला और तेज़ हो गई है।
जयराम रमेश के इस बयान ने एक बार फिर सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया है। वे केवल आरोप नहीं लगा रहे, बल्कि ठोस आंकड़ों के साथ जनहित की बात कर रहे हैं। यदि सरकार इस विषय पर चुप रहती है या कोई संतोषजनक उत्तर नहीं देती, तो यह मुद्दा आगामी चुनावों में एक बड़ा राजनीतिक मसला बन सकता है। ऐसे समय में जब देश महंगाई, बेरोजगारी और आर्थिक असमानता की चुनौतियों से जूझ रहा है, हर नीतिगत निर्णय की पारदर्शिता और न्यायिकता का परीक्षण अत्यंत आवश्यक है।